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क्या इंद्र देव किसी साधक की तपस्या में हस्तक्षेप करते हैं?

इंद्र एक पद का नाम है जो स्वर्ग के राजा हैं और अमरावती इनकी राजधानी है। अब तक 14 इन्द्र हो चुके हैं:- यज्न, विपस्चित, शीबि, विधु, मनोजव, पुरंदर, बाली, अद्भुत, शांति, विश, रितुधाम, देवास्पति और सुचि। उपरोक्त में से शचिपति इन्द्र पुरंदर के पूर्व पांच इन्द्र हो चुके हैं

इन्द्रपद : इन्द्र के बल, पराक्रम और अन्य कार्यों के कारण उनका नाम ही एक पद बन गया था। अब जो भी स्वर्ग पर अधिकार प्राप्त कर लेता था उसे इन्द्र की उपाधि प्रदान कर दी जाती थी। विभिन्न कालों में विभिन्न व्यक्ति उस पर आसीन होते थे। इन्द्र के निर्वाचन की पद्धति क्या थी इसका कुछ पता नहीं, लेकिन जो भी व्यक्ति उस पद पर आरूढ़ हो जाता था उसके हाथ में सर्वोच्च सत्ता आ जाती थी।

14 मन्वंतर में 14 इन्द्र होते हैं ।असुरों के राजा बली भी इन्द्र बन चुके हैं और रावण पुत्र मेघनाद ने भी इन्द्रपद हासिल कर लिया था।

वर्तमान में इंद्र पद पर शक्र नाम के देवता आसीन हैं।

इंद्र बदलते रहते है. इंद्र देव है. देवताओं के अधिपति है. इंद्र आदित्य में गिने जाते है. अदिति और कश्यप ऋषि के पुत्र है. वरशा और मेघ पर इनका अधिपत्य है. हार एक मन्वन्तर में एक इंद्र होता है अर्थात एक मनु के साथ एक इंद्र. एक कल्प में चौदह मन्वंतर होते है अतः चौदह हि इंद्र हुए. देवताओं का एक दिन मानव के छै माह के बराबर होता है. मानव वर्ष का अर्थ देवताओं का एक दिन और एक रात होती है. इंद्र कि आयु एक मन्वन्तर है. इनका अस्त्र वज्र है जो दधीचि ऋषि कि हड्डियों से बिश्वकर्मा द्वारा बनाया गया है. इनको देवराज भि कहा जाता है.

उनको अपना सिंहासन हमेशा हिलता दीखता है और किसी असुर मानव देव या ऋषि को ठीक तरह से पूजा नहीं करने देते कि कहि कोई इनका राजपाट न ले ले और इनको पदच्युत न कर दे. अतः अपनी अप्सराये भेजकर काम रोग लगाकर तप भंग कराते है. ऋषि विश्वामित्र का तप मेनका से भंग कराया था. ये स्वयं भोग विलास में मग्न रहते है. इनकी रानी का नाम सच है और पुत्र जयंत पुत्री जयंती है. द्वापर तक ये अर्जुन जैसा वीर पुत्र पैदा करते रहे. सुग्रीव भि इंद्र पुत्र हि थे. वैष्णो जी भि आदित्य होने से इनके हि पक्ष के देवता है. वरुण जी भि देव है लेकिन जल के अधिपति है उनका झुकाव असुर को तरफ है.

क्या इंद्र देव किसी साधक की तपस्या में हस्तक्षेप करते हैं?

जब किसी साधक का जीव मूलाधार से ऊपर उठकर स्वाधिष्ठान में कुंडलिनी के माध्यम से पहुंचता है तो उसके अंदर इंद्र की शक्तियां आ जाती हैं । स्वाधिष्ठान के देवता इंद्र हैं और देवी ब्रह्मचारिणी है यहां पर पहुँचने से रोकने के लिए इंद्र साधना में विघ्न डालता है इसका विस्तार से वर्णन मेरे प्रोफाइल में पिन किए हुए एक उत्तर में दिया है आप उसे भी देख सकते हैं

इंद्र के वज्र का निर्माण कैसे हुआ?

भागवत में लिखा है कि इंद्र ने वृत्रासुर का वध करने के लिये दधीचि की हड्डी से वज्र बनवाया था । मत्स्य- पुराण के अनुसार जब विश्वरकर्मा ने सूर्य को भ्रमयंत्र (खराद) पर चढ़ाकर खरादा था, तब छिलकर जो तेज निकला था, उसी से विष्णु का चक्र, रुद्र का शूल और इंद्र का वज्र बना था ।

इंद्र देवता को लड़कियों से मोह क्यों था?

इन्द्र वस्तुतः एक पद का नाम है।

देवताओं के राजा के पद को ‘इन्द्र’ कहते हैं।

उस पद पर बैठने वाले व्यक्ति का नाम भी इन्द्र हो जाता है।

इसके संकेत तो अनेक पौराणिक कथाओं एवं विवरणों में मिलता है, परन्तु महाभारत के अनेक सन्दर्भों से यह भलीभाँति स्पष्ट हो जाता है कि यह एक पद का नाम है।

जिन-जिन कथाओं में ये पद छिन जाने से भयभीत होते हैं उन कथाओं के साथ इन्द्र बनने की अन्य व्यक्तियों की कथाओं को मिलाकर देखने पर बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है।

अनेक जगह ‘इन्द्र’ शब्द का व्यक्तिवाची प्रयोग न होकर पदवाची (‘इन्द्रत्व’) प्रयोग हुआ है।

अगर इंद्र एक देवता या भगवान है तो फिर उसने छल कपट का इस्तेमाल क्यों किया?

ऐसा माना जाता है कि इंद्र किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं, बल्कि यह एक पद का नाम है और दूसरा एक विशेष प्रकार के बादल का भी नाम है। इंद्र एक काल (समय पीरियड) का नाम भी है।

अब तक 14 इंद्र हुए हैं –

अब तक स्वर्ग पर राज करने वाले 14 इंद्र माने गए हैं। 14 मन्वंतर में 14 इंद्र हुए हैं। 14 इंद्र के नाम पर ही मन्वंतरों के अंतर्गत होने वाले इंद्र के नाम भी रखे गए हैं। प्रत्येक मन्वंतर में एक इंद्र हुए हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं-

1. यज्न, 2. विपस्चित, 3. सुशान्ति, 4. शिवि, 5. विभु,

6. मनोजव, 7. पुरंदर, 8. बाली, 9. अद्भुत, 10. शांति,

11. विश, 12. रितुधाम, 13. देवास्पति 14. सुचि।

कहा जाता है कि एक इन्द्र ‘वृषभ’ (बैल) के समान था। असुरों के राजा ‘बली’ भी इंद्र बन चुके हैं और रावण पुत्र ‘मेघनाद’ ने भी इंद्रपद हासिल कर लिया था।

इंद्रपद पर आसीन देवता नहीं चाहते थे कि कोई भी तपस्वी या राजा उनसे अधिक शक्तिशाली बने और इसलिए वे छल कपट का सहारा लेते थे।

हिन्दू धर्म में नहीं होती इन्द्र की पूजा –

भगवान कृष्ण के पहले ‘इंद्रोत्सव‘ नामक उत्तर भारत में एक बहुत बड़ा त्योहार होता था। भगवान कृष्ण ने इंद्र की पूजा बंद करवाकर गोपोत्सव, रंगपंचमी और होलीका का आयोजन करना शुरू किया। भगवान श्रीकृष्णजी का मानना था कि ऐसे किसी व्यक्ति की पूजा नहीं करना चाहिए जो न ईश्वर हो और न ईश्वरतुल्य हो। गाय की पूजा इस लिए करनी चाहिए क्योंकि इसी के माध्यम से हमारा जीवन चलता है। होलिका उत्सव इसलिए मनाना चाहिए क्योंकि यह सत्य की असत्य पर जीत का प्रतीक है। रंगपंचमी जीवन को उत्सव और खुशियों से भरने का त्योहार है।

श्रीकृष्ण जी का मानना था कि हमारे आस-पास जो भी चीजे हैं उनसे हम बहुत ही प्रेम करते हैं । जैसे गायें, पेड़-पौधे, गोवर्धन पर्वत आदि। श्रीकृष्ण जी के शब्दों में ‘ये सब हमारी जिंदगी हैं। यही लोग, यही पेड़, यही जानवर, यही पर्वत तो हैं जो हमेशा हमारे साथ हैं और हमारा पालन पोषण करते हैं। इन्हीं की वजह से हमारी जिंदगी है। ऐसे में हम किसी ऐसे देवता की पूजा क्यों करें, जो हमें भय दिखाता है। मुझे किसी देवता का डर नहीं है। अगर हमें चढ़ावे और पूजा का आयोजन करना ही है तो अब हम गोपोत्सव मनाएंगे, इंद्रोत्सव नहीं।’

भगवान श्री इंद्र के वज्र अस्त्र का क्या इतिहास था?

पुराणानुसार भाले के फल के समान एक शस्त्र जो इंद्र का प्रधान शस्त्र कहा गया है । विशेष—इसकी उत्पत्ति की कथा ब्राह्मण ग्रंथों और पुराणों में लिखी हुई है । ऋग्वेद में उल्लेख है कि दधीचि ऋषि की हड्डी से इंद्र ने राक्षसों का ध्वस किया । ऐतरेय ब्राह्मण में इसका इस प्रकार विवरण है । दधीचि जब तक जीते थे, तब तक असुर उन्हें देखकर भाग जाते थे पर जब वे मर गए, तब असुरों ने उत्पात मचाना आरंभ किया । इंद्र दधीचि ऋषि की खोज में पुष्कर गए । वहाँ पता चला कि दधीचि का देहावसान हो गया । इसपर इंद्र उनकी हड्डी ढूँढने लगे ।

पुष्कर क्षेत्र में सिर की हड्डी मिली । उसी का वज्र बनाकर इंद्र ने असुरों का संहार किया । भागवत में लिखा है कि इंद्र ने वृत्रासुर का वध करने के लिये दधीचि की हड्डी से वज्र बनवाया था । मत्स्य- पुराण के अनुसार जब विश्वरकर्मा ने सूर्य को भ्रमयंत्र (खराद) पर चढ़ाकर खरादा था, तब छिलकर जो तेज निकला था, उसी से विष्णु का चक्र, रुद्र का शूल और इंद्र का वज्र बना था । वामनपुराण में लिखा है कि इंद्र जब दिति के गर्भ में घुस गए थे, तब वहाँ उन्हें बालक के पास ही एक मांसपिंड मिला था । इंद्र ने जब उसे हाथ में लेकर दबाया, तब वह लंबा हो गया और उसमें सौ गाँठें दिखाई पड़ीं । वही पीछे कठिन होकर वज्र बन गया । इसी प्रकार और और पुराणों में भी भिन्न भिन्न कथाएँ हैं

इन्द्र का प्रसिद्ध आयुध ‘वज्र’ है, जिसे कि विद्युत्-प्रहार से अभिन्न माना जा सकता है। इन्द्र के वज्र का निर्माण ‘त्वष्टा’ नामक देवता-विशेष द्वारा किया गया था। इन्द्र को कभी-कभी धनुष-बाण और अंकुश से युक्त भी बतलाया गया है। उसका रथ स्वर्णाभ है। दो हरित् वर्ण अश्वों द्वारा वाहित उस रथ का निर्माण देव-शिल्पी ऋभुओं द्वारा किया गया था।इन्द्रकृत वृत्र-वध ऋग्वेद में बहुधा और बहुशः वर्णित और उल्लिखित है। सोम की मादकता से उत्प्रेरित हो, प्रायः मरुद्गणों के साथ, वह ‘वृत्र’ अथवा ‘अहि’ नामक दैत्यों (=प्रायः अनावृष्टि और अकाल के प्रतीक) पर आक्रमण करके अपने वज्र से उनका वध कर डालता है और पर्वत को भेद कर बन्दीकृत गायों के समान अवरुद्ध जलों को विनिर्मुक्त कर देता है।

उक्त दैत्यों का आवास-स्थल ‘पर्वत’ मेघों के अतिरिक्त कुछ नहीं है, जिनका भेदन वह जल-विमोचन हेतु करता है। इसी प्रकार गायों को अवरुद्ध कर रखने वाली प्रस्तर-शिलाएँ भी जल-निरोधक मेघ ही हैं।[18] मेघ ही वे प्रासाद भी हैं जिनमें पूर्वोक्त दैत्य निवास करते हैं। इन प्रासादों की संख्या कहीं 90, कहीं 99 तो कहीं 100 बतलाई गई है, जिनका विध्वंस करके इन्द्र ‘पुरभिद्’ विरुद धारण करता है। वृत्र या अहि के वधपूर्वक जल-विमोचन के साथ-साथ प्रकाश के अनवरुद्ध बना दिये जाने की बात भी बहुधा वर्णित है। उस वृत्र या अहि को मार कर इन्द्र सूर्य को सबके लिये दृष्टिगोचर बना देता है।

यहाँ पर उक्त वृत्र या अहि से अभिप्राय या तो सूर्य प्रकाश के अवरोधक मेघ से है, या फिर निशाकालिक अन्धकार से। सूर्य और उषस् के साथ जिन गायों का उल्लेख मिलता है, वे प्रातः कालिक सूर्य की किरणों का ही प्रतिरूप हैं, जो कि अपने कृष्णाभ आवास-स्थल से बाहर निकलती हैं। इस प्रकार इन्द्र का गोपपतित्व भी सुप्रकट हो जाता है। वृत्र और अहि के वध के अतिरिक्त अन्य अनेक उपाख्यान भी इन्द्र के सम्बन्ध में उपलब्ध होते हैं। ‘सरमा’ की सहायता से उसने ‘पणि’ नामक दैत्यों द्वारा बन्दी बनाई गई गायों को छीन लिया था। ‘उषस्’ के रथ का विध्वंस, सूर्य के रथ के एक चक्र की चोरी, सोम-विजय आदि उपाख्यान भी प्राप्त हैं।

गौतम ऋषि ने इंद्र को क्यों और क्या श्राप दिया था?

ऋषि गौतम अपनी पत्नी के साथ सुख से रहते थे। माता अहिल्या इतनी सुंदर थी कि उनके रूप की चर्चा तीनों लोक में थी। जब यह बात देवराज इंद्र को पता चली तो वो उनके प्रति आकर्षित हो गए। एक दिन जब ऋषि गौतम अपनी कुटिया से बाहर गए तो इंद्र गौतम ऋषि का रूप रखकर माता अहिल्या के पास आए और उन पर मोहित हो गए। लेकिन जब गौतम ऋषि घर लौटे तो, अपने ही स्वरूप को देखकर चौंक गए।


इंद्र अपने असली रूप में आए और ऋषि से क्षमा याचना करने लगे। तब गौतम ऋषि ने इंद्र को नपुंसक बनने का शाप दे दिया ( यह शाप अलग-अलग पौराणिक ग्रंथों में अलग-अलग तरीके से बताया गया है – जैसे कहीं शरीर में 1000 भंग होने का ,और कि तुम शत्रु से पराजित होगे और उनके हाथ बंदी बनोगे जैसा की मेघनाथ ने किया ) और अपनी पत्नी अहिल्या को पत्थर की शिला बन जाने का शाप दिया.

देवराज इंद्र को मिले शाप से देवगण काफी दुःखी हो गए। ऋषि गौतम ने अपनी पत्नी अहिल्या से कहा कि तुम्हें इसी तरह ही प्रायश्चित करना होगा और जब भगवान विष्णु के मानवरूप श्रीराम यहां आएंगे और इस शिला पर अपने पवित्र चरण रखेंगे। तब तुम्हारा उद्धार होगा। ऐसा ही हुआ जब भगवान विष्णु ने रामावतार लिया उस समय उन्होंने अहिल्या को स्पर्श कर उसका उद्धार किया।

टीवी सीरियल में इन्द्र देव को एक बुरे व्यक्ति के रूप में क्यों दिखाते है, क्या ये इन्द्र देव का रूप सच में ऐसा था?

जी नही, देवराज इंद्र बिल्कुल ऐसे नही हैं जैसा आज कल के बकवास टीवी सीरियलों में दिखाया जाता है।

आप स्वयं ही सोचिये कि देवता हम मनुष्यों से श्रेष्ठ समझे जाते हैं। यही कारण है कि जब कोई मनुष्य अत्यंत उत्कृष्ट बन जाता है तो उसे हम “देवता तुल्य” कहते हैं। फिर इंद्र तो सभी देवताओं के सम्राट हैं फिर वो किस प्रकार वैसे हो सकते हैं जैसा आजकल उनका चित्रण किया जाता है? उनका जैसा बुरा चरित्र हमें दिखाया जाता है उसके मुख्यतः दो कारण है:

  1. जानकारी का अभाव: कितने लोग वास्तव में ऐसे हैं जिन्होंने इंद्र के विषय मे पढ़ा हो? या ऐसे बकवास टीवी सीरियल बनाने वाले कितने हैं जो उसे बनाने से पहले गहन शोध करते हैं?
  2. पूर्वाग्रह: समस्या ये है कि वर्षों से ऐसी बकवास देख कर आज की पीढ़ी इंद्र के प्रति एक गलत पूर्वाग्रह से ग्रसित हो गयी है, जिससे निकलना अति आवश्यक है।

देवराज इंद्र की प्रशंसा की ऋचाओं से ऋग्वेद भरा पड़ा है। वैदिक काल मे, जब ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश त्रिमूर्ति के रूप में प्रचलित नही थे, उस समय इंद्र को वरुण एवं अग्नि के साथ त्रिमूर्ति का स्थान प्राप्त था।

इंद्र सभी देवताओं, गंधर्व, किन्नर, अप्सराओं, मरुतों, वसुओं इत्यादि के सम्राट माने जाते हैं। उन्ही के आदेश पर पवन देव हममे प्राण का संचार करते हैं, वरुण देव जल बन बरसते हैं, सूर्यदेव प्रकाश और ऊष्मा देते हैं और अग्निदेव हमें पवित्र करते हैं। अन्य सभी देवता भी अपने अपने दायित्व का निर्वहन करते हैं। शची इंद्र की धर्मपत्नी है जो सभी देवस्त्रियों की नेत्री बताई गई है।

वेदों में उनकी शक्ति अपार बताई गई है। उनके वज्र का प्रहार असहनीय है। श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है कि उनके सुदर्शन चक्र का सामना इंद्र के वज्र के अतिरिक्त और कोई नही कर सकता। संसार की कोई शक्ति उनके सम्मुख ठहर नही सकती। जब इंद्र हाथ मे वज्र ले ऐरावत पर बैठ कर युद्ध के लिए निकलते हैं तो शत्रुओं उन्हें देखते ही रण छोड़ देते हैं। देवता और मनुष्य सभी उनका सम्मान करते हैं और दैत्य असुर उनके भय से आतंकित रहते हैं। इंद्र त्रिदेवों के कृपापात्र हैं और उनके सहयोग से संसार का संचालन करते हैं।

पुराणों में ये भी कहा गया है कि “इंद्र” एक पद है। जो भी स्वर्ग के सिंहासन पर बैठता है वो इंद्र ही कहलाता है। जैसे ययाति के पिता नहुष ने भी एक बार इंद्र का पद ग्रहण किया था। मारकण्डेय ऋषि से वार्तालाप के समय उर्वशी ने भी कहा था कि मेरे समक्ष कितने इंद्र आये और कितने चले गए। इससे ये सिद्ध होता है कि इंद्र एक पदवी है। जैसे प्रधानमंत्री एक पद है और उसपर बैठने वाले मनुष्य अलग अलग हैं।

रामायण में इंद्र ने श्रीराम की सहायता के लिए अपना रथ भेजा था। बाली भी इंद्रपुत्र ही था। श्रीराम के पिता दशरथ इंद्र के अभिन्न मित्र थे। महाभारत में भी श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इंद्र के पास ही सभी दिव्यास्त्र लेने को भेजा। श्रीकृष्ण के अनुरोध पर इंद्र ने ही दान में कर्ण के कवच और कुंडल मांग लिए जिससे अर्जुन की विजय संभव हुई। अर्जुन भी कुंती को इंद्र की कृपा से ही प्राप्त हुआ था। जब महादेव अर्जुन की परीक्षा हेतु आये तो इंद्र ने ही शूकर का रूप धर अर्जुन को पशुपास्त्र प्राप्त करने में सहायता की।

चूंकि इंद्र सम्राट हैं इसीलिए उनमे राजसी गुण होना सामान्य है। उन्हें कामासक्त बताया जाना भी इसी गुण की प्रधानता दिखलाता है। इंद्र में कोई अवगुण नही मैं ये नही कह रहा किन्तु उसे जिस प्रकार से आज कल के टीवी सीरियल्स में बिगाड़ कर दिखाया जाता है वो बहुत निंदनीय है।

प्रिय मित्रों आशा करता हूँ की आपको ये ब्लॉग अच्छा लगा होगा और इससे सीखने को मिला होगा, अगर पसंद आया तो इसे लाइक और शेयर जरूर करे

नमो नारायण जय महाकाल जय माँ बगलामुखी

लेखक

ललित सिंह

संस्थापक

काली तत्त्व ज्ञान

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